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जेठ की दोपहरी

                                                     *** जेठ की दोपहरी ***


अरे सोमू भैया!!! बहुत सालों बाद गाँव आएँ! सब ठीक तो है? “तीन पहिया आटो से अपना सूट्केस ले कर गाँव से २ कोस दूर चौराहे पर उतर रहा था तभी पीछे से आवाज़ आयी” ।

सूट्केस सम्भालते हुए और चेहरे का पसीना पोछते हुए, पीछे मुड़कर के देखा तो जगु मोटरसाइकल से उतर कर सोमेश की तरफ़ आ रहा था। “गाँव में सोमेश को सभी लोग सोमू कहके बुलाते थे”

अरे जगु तुम! हाँ, बहुत सालों बाद गाँव आया हूँ, स्कूल की गर्मी की छुट्टी चल रही है तो सोचा गाँव घूम आऊँ।

तुम बताओ! कैसे हो भई? बहुत सालों बाद तुम्हें देखा है।
“जगु २ साल सोमेश से छोटा था, गाँव में उसके घर के बग़ल में ही जगु का घर है, सोमेश जब साइकल से स्कूल जाता था तो कभी-कभी इसको भी स्कूल जाने के लिए पीछे कैरीअर पे बैठा लेटा था।”

हम लोग ठीक हैं भैया, बस बाबूजी को बुख़ार है २ दिन से तो दवा की दुकान जा रहा हूँ दवा लाने।
आप आधा घंटा रुकिए यहीं, मैं आता हूँ तो मेरे साथ ही मोटरसाइकल पर गाँव चले चलिएगा।
“जगु भी अपने सर से गमछा खोल कर पसीना पोछते हुए एक साँस में बोलता गया और मेरा सूट्केस सड़क के किनारे रख दिया”।

अरे नहीं मैं पैदल चला जाऊँगा। अपना गाँव कितना दूर है ही !!! हम लोग बचपन में पैदल ही तो चले जाते थे!
“सोमेश अपने बचपन की बातें बोलते हुए, बचपन की यादों में चला गया"

नहीं भैया, बहुत धूप है पैदल कैसे जाएँगे? बस आप यहीं रुकिए, मैं आ रहा हूँ।
“जगु सोमेश को आज्ञा देते हुए बोलता रहा और मोटरसाइकल स्टार्ट करके दूसरी तरफ़ दवा लेने चला गया”।

सोमेश १० मिनट तक वहीं खड़ा रहा, लेकिन दोपहर की धूप इतनी तेज थी कि सारा शरीर पसीने से भीग गया और एक पेड़ तक नहीं था कि जिसकी छाँव में कोई राहत मिल जाता।

“फिर बचपन की यादों में चला गया और सोचने लगा कि बचपन में यहाँ एक बड़ा सा पीपल का पेड़ होता था, जब हम लोग स्कूल से घर जाते थे तो उसी पेड़ के नीचे आराम करते थे और खेलते भी थे। लेकिन अब कहीं कोई पेड़ नहीं दिख रहा, उसकी जगह दूक़ानें और घर बन गए हैं।”

सोमेश सोचा, जब तक यहाँ खड़े रहेंगे उससे अच्छा है धीरे-धीरे चलते ही हैं। फिर अपना सामान ले कर रोड पर चलने लगा। पहले रोड कच्ची होती थी, अब तो पक्की बन गई है।

लेकिन पहले रोड के किनारे पेड़ हुआ करते थे उससे धूप नहीं लगती थी। अब तो बहुत धूप लग रही है!!! १० मिनट पैदल चलने पर ही हालट ख़राब हो गयी।

फिर सोमू को प्यास लग गयी, पास में रखे पानी के बोतल को देखा तो पानी ख़त्म हो गया था। फिर उसे याद आया यहाँ रास्ते में एक कुआँ हुआ करता था, जब कभी किसी को प्यास लगती थी तो कुएँ से पानी निकाल कर पी लेता था। लेकिन अब कहीं कुआँ दिख नहीं रहा!

दूसरी तरफ़ से एक अधेड़ उम्र के आदमी पैदल चले आ रहे थे।
“उनको देखते ही सोमेश उनसे पूछा”, चाचा, यहीं कहीं एक कुआँ हुआ करता था, अब नहीं दिख रहा?

“उन राहगीर ने सोमेश को जवाब दिया ” लगता है बेटा बहुत सालों बाद इधर आए हो!!!
“सोमेश ने भी उनको जवाब दिया” हाँ चाचा, शहर में अध्यापक की नौकरी लग गयी तो बहुत सालों बाद आया हूँ।

“राहगीर चाचा सोमेश के पास आकर अपना गमछा सर से उतारते हुए बात करने लेंगे ”

हाँ बेटा था तो बहुत कुछ यहाँ, पास में ही बगीचा था, तालाब था जहां गाँव के मवेशी नहाते थे और जेठ की पूरी दोपहरी ठंडी के लिए मवेशी तालाब में ही रहते थे, यहाँ एक कुआँ था जहां किसान अपने खेतों में काम करते-करते दोपहर में थके प्यासे हो जाते थे तो यहीं कुएँ का साफ़ पानी पी कर बगीचे में आराम कर लेते थे। लेकिन अब ये सब कहाँ रहा बेटा! बगीचा काट के ईंट का भट्टा बन गया, कुएँ पाट कर वहाँ दूक़ाने बन गयीं।
सब जगह विकास हो गया। अब तो जेठ की दोपहरी पता भी नहीं चलता, अब किसके पास समय है दोपहरी मनाने की?
चाचा की बातें सोमेश को बंदूक़ की गोली की तरह चीरती चली जा रही थीं। फिर वह रास्ते पर गाँव के तरफ़ अकेला चलता रहा और गुमशूम अपने बचपन के यादों में घूमता रहा।

- अरुण सिंह


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