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असली ज़रूरत मंद

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"भाई साहेब ! ओ भाई साहेब ! सुनिए तो! बच्चा कई दिनों से भूखा है । कुछ मदद कर दीजिए ।"
आवाज़ अनसुनी कर रोहित चला जा रहा था । तभी उसके मन में पता नहीं क्या आया कि पीछे मुड़ के उस औरत के पास आ गया जो उसे आवाज़ लगा रही थी । यही कोई लगभग 45 वर्ष की आयु की औरत थी। रोहित को पास आते देख, महिला दयनीय चेहरा बना कर गिड़गिड़ाते हुए बोलने लगी।
"साहेब! पैसे नहीं तो राशन दिला दीजिए या 5 किलो आटा ही दिला दीजिए, बच्चे भूखे हैं " ।
"मैं आपको इसी जगह पे सालों से देखता हूँ। आपकी सेहत भी ठीक ठाक दिखती है, फिर आप ये रोज़ इतना भीख माँग कर करती क्या हैं ? मैंने भी बहुत बार आपको मदद की है । मुझे याद है।”
रोहित उस औरत को प्यार से समझाने के लहजे से बात करने लगा ।
"अरे नहीं साहेब मेरा बच्चा भूखा है, पैसे नहीं तो खाने का सामान दिला दीजिए। ” औरत एक बात की रट लगाए पड़ी थी।
“अच्छा तो पहले आप लोग पैसे माँगते थे, और लोग ज़रा समझदार हो गए हैं तो आप लोग बोलते हो कि 5 किलो का आटा दिला दीजिए। आपको सुबह से कम से कम 50 किलो आटा तो मिल ही गया होगा? कहाँ है सारा समान ?”
अब रोहित की आवाज़ में तनिक कठोरता आने लगी।
"आपको पता है हमें मदद करने में कोई दिक़्क़त नहीं है लेकिन समस्या ये है कि आप लोगों की वजह से जो बिलकुल ज़रूरत मंद हैं उनको मदद नहीं मिल पाती है ”
“ऐसा है भाई साहेब अगर आपको मदद करनी है तो करिए नहीं तो यहाँ से निकलते
बनिए, और ज़्यादा ज्ञान मत बाटिए यहाँ ।”
औरत भी अब अपनी आवाज़ तेज करने लगी। उसे लग गया कि ये आदमी कुछ मदद तो करेगा नहीं और उल्टा दूसरे ग्राहक को भी भड़का देगा।
कुछ देर तक बातों का युद्ध चलता रहा फिर रोहित अपने आपको कुछ और जनो से घिरा पाया । शायद ये लोग उस औरत के साथी थे।
भाई साहेब, अपने काम से मतलब रखो ना? जाओ यहाँ से, कुछ देना तो है नहीं और यहाँ का माहौल और ख़राब कर रहे हो। निकलो यहाँ से।” रोहित ने आवाज़ की तरफ़ मुड़ के देखा तो लगा यह आदमी इन लोगों से अलग है और ये इनका मालिक लग रहा है।
रोहित को समझ नहीं आ रहा था कि वह इन लोगों को कैसे समझाए? आख़िर ये कब तक ज़रूरत मंद का हक़ खाते रहेंगे। रोहित वहाँ का माहौल गरम होता देख वहाँ से चला गया। और उसकी तरफ़ से कोई था भी तो नहीं उसकी बातों का समर्थन करने के लिए?
फिर रोहित क़रीब रोज़ ही उस जगह पर किसी ना किसी औरत या आदमी को देखता जो अलग- अलग परेशानियाँ बता के राह चलते लोगों से मदद लेते थे।
उसका मन दुखी हो जाता कि ये मदद असल में जिनको चाहिए उनको नहीं मिल पाती।
-अरुण कुमार सिंह

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